बिखराव...

इस मौसम की तरह मेरी आँखों ने भी बेइमानी सीख ली है, न दिन देखती हैं न रात बस बरस पड़ती हैं।
लगता है कुछ अधूरा सा है, सीने मे दिल तो है पर धड़कता नही है। कुछ एक खालीपन सा है मेरे भीतर जो हर वक़्त मुझे खलता है, न जाने क्यों रह-रहकर बीते वक़्त की गुमनाम गलियों में जाकर ठहर जाता है ।
अंधेरे का काला कम्बल ओढ़े ये रात, अक्सर मुझे डराती है  मानो अपने साये में मुझे समेट रही है। 
ये बारिश जो कभी खूबसूरत लगती थी, आज इसके बरसने से मैं बिखर रही हूं, गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू जो कभी मन में हजार उमंगें जगा देती थीं, आज वो भी कुछ फीकी सी मालूम पड़ती हैं। 
हर शाम... मै लौटती तो हूं दफ्तर से 
पर लगता है मै घर वापस आयी ही नही
जैसे छूट गयी हूं कहीं,
किसी वक्त की दौड़ के पीछे
खुद को समेटते हुए।।
कर तो रहीं हूं एक कोशिश, हर रोज़ खुद में कुछ टटोलने की
इस नई दुनिया की रिवायतों को अपनाने की 
पर शायद कही गुम हो रही हूं,
जैसे अपने ही अस्तित्व को कही खो रहीं हूं। 
डर लगता है, कहीं दफन न हो जाये मासूमियत मेरी 
इन बड़े शहरों की ऊंची इमारतों में, 
जो मुझे जिंदा होने का अहसास दिलाती है 
औरों से अलग मेरी खुद की एक पहचान बनाती है।।
पर अब मुझे संभलना होगा, इस मायूसीयत के आलम से बाहर झाँक कर 
आने वाली नई रोशनी का स्वागत करना होगा।।

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