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आंचल- ममता का

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अलसुबह दिन भर की भाग दौड़ के साथ चूड़ियों की खनखनाहट के साथ  शुरू होती कहानी दिनभर के संघर्ष की  और खत्म होती है देर रात,  बिस्तर पर टूटकर बिखरने के साथ कैसे कर लेती हो तुम  इतना सब कुछ.... रोज़ थोड़ा- थोड़ा बचाकर टूटे हुए सामान को जोड़कर तुम बना लेती हो घर अपना जिसे तुम सहेज कर रखती हो अपनी तकलीफ को छुपाकर अपने दर्द को सबकी नजर से बचाकर होठों पर  मीठी सी मुस्कान बिखेरकर  पूरे परिवार को अपने आंचल में समेट लेती हो। कैसे कर लेती हो तुम इतना सबकुछ.... सबकी ज़रूरत पूरी करते-करते आखिर क्यों भूल जाती हो तुम तुम्हारी भी एक जिंदगी है जिसे तुम्हें जीना है लोग क्या कहेंगे, इस फ़िक्र को छोड़कर अपनी दुनिया को खुद रंगों से भरना है। अब तुम्हें,  अपने ख्वाबों को भी पूरा करना है 💕 - अदिति गुप्ता
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 मैंने मां को कभी कुछ बिगाड़ते नहीं देखा वो संवारती हैं, सहेजती हैं, संभाल कर रखती हैं उस एक टुकड़े को भी जो घर में किसी के काम नहीं आता।। करीने से सजाकर रखती हैं  मेरे पुराने सामान को भी जिनके कुछ टूटे हिस्से न जाने अब कहां पड़े होंगे।। कभी धूप दिखाकर तो कभी बारिश से बचाकर  कभी तुरपाई से, कभी सिलाई से तो कभी हाथों की सफ़ाई से,  वो हर चीज का अस्तित्व का बरकरार रखती हैं।। चीजों को संभालने के साथ-साथ  वो हर रिश्ते को भी बखूबी बांधकर रखती हैं उम्मीद के हर आखिरी छोर तक।। मैंने मां को कभी नहीं देखा, सुबह की धूप में अलसाते हुए  आराम कुर्सी पर बैठे बरामदे में अखबार पढ़ते हुए  या सप्ताह में एक दिन छुट्टी लेते हुए।। इसके बदले वो कुछ नहीं मांगती  बस जरा से लाड़ और दुलार से खुश हो जाती हैं जैसे किसी बच्चे को मिल गया हो आसमान का चंदा थाली में सजा हुआ।।
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   कभी दिल्ली, हैदराबाद, बुलंदशहर, लखीमपुर खेरी, बलरामपुर तो इस बार हाथरस तो अगली बार कहीं और होगा। एक बार फिर किसी अलग नाम से एक लड़की समाचार की सुर्ख़ियों में नजर आएगी। हर बार बस जगह और नाम बदल जाते हैं लेकिन नहीं बदलती हैं तो यह घिनौनी घटनाएं जो हर बार नए एक्सपेरिमेंट्स के साथ की जाती हैं , जिसकी आड़ में राजनीतिक दल, नेता और मंत्री सियासत करते हुए दिखते हैं या फिर हम किसी चौक-चौराहे पर हाथ में इंसाफ मांगने वाले बैनर थामे नजर आते हैं।  किसी पर आरोप लगाकर या प्रोटेस्ट करके हम पूरी कोशिश तो करते हैं कि लड़की को इंसाफ दिलाने की लेकिन क्या अपने आरोपियों को फांसी पर लटकता देखने के लिए वो अब जिन्दा है? सजा तो पहली भी मिली थी कहीं फांसी की तो कहीं एनकाउंटर में मारा गया था क्या उसके बावजूद भी रेप होना बंद हुए? तो जवाब आएगा नहीं।  मोमबत्ती जलाने से उसकी जलन ख़त्म कभी नहीं हो सकती जो रेप के बाद उम्रभर उसे बर्दाश्त करनी पड़ती है. हर केस के बाद एक नई हेडलाइंस के साथ खबरें देखने को मिलती हैं तो इस बार दलित लड़की कहकर इस केस में वजन डाला गया है, वो कोई धर्म, जाती और स्टेटस देखकर रेप नहीं करते उन्हें तो ब

एक खत- माँ के लिए

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माँ, उम्र के इस दौर में मुझे आज मेरा बचपन याद आ रहा है। जब कभी मै बीमार पड़ती तो दवाई के कड़वा होने की वजह से मैं अक्सर उन्हें छुपा दिया करती थी, पर तुम्हे लगता कि ना जाने तुम्हारी लाडो ठीक क्यों नहीं हो रही?  तुम झट से आती और अपने आँचल से मेरी नजर उतार दिया करती थीं। बेशक ये बात जानकर अब तुम्हे मुझ पर गुस्सा तो नहीं आएगा फिर भी एक बेईमान सी नाराजगी जताने का तुम पूरा दिखावा करोगी। स्कूल से आने के बाद मुझे आलू की सब्जी खाना कतई पसंद नहीं आता था, तब मेरी भूख की परवाह करते हुए तुम जल्दी से तड़के वाली दाल और चावल बना दिया करती थीं। हाँ... रखलो अपनी लाड़ली का ख्याल! दीदी और भाई से ये ताने भी अक्सर तुम मेरे लिए सुन लिया करती थीं। मैंने उन तमाम कामों को करने की कोशिश की जो मुझसे आज तक नहीं हो पाए, पर मेरा हौसला बढ़ाने से तुम कभी पीछे नहीं हटी। कदम से कदम मिलाकर मेरे साथ चलना और एग्जाम्स वाली रात मेरे साथ जागते हुए काटना तुम्हे बखूबी आता था। मैं जानती हूं माँ, उस दिन बहुत रोया था तुम्हारा दिल, शायद तुम बिखर भी चुकी होंगी जब मैं अपने सपनों के पीछे भागते हुए, तुम्हे अकेला छोड़कर एक पराए शहर में

बिखराव...

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इस मौसम की तरह मेरी आँखों ने भी बेइमानी सीख ली है, न दिन देखती हैं न रात बस बरस पड़ती हैं। लगता है कुछ अधूरा सा है, सीने मे दिल तो है पर धड़कता नही है। कुछ एक खालीपन सा है मेरे भीतर जो हर वक़्त मुझे खलता है, न जाने क्यों रह-रहकर बीते वक़्त की गुमनाम गलियों में जाकर ठहर जाता है । अंधेरे का काला कम्बल ओढ़े ये रात, अक्सर मुझे डराती है  मानो अपने साये में मुझे समेट रही है।  ये बारिश जो कभी खूबसूरत लगती थी, आज इसके बरसने से मैं बिखर रही हूं, गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू जो कभी मन में हजार उमंगें जगा देती थीं, आज वो भी कुछ फीकी सी मालूम पड़ती हैं।  हर शाम... मै लौटती तो हूं दफ्तर से  पर लगता है मै घर वापस आयी ही नही जैसे छूट गयी हूं कहीं, किसी वक्त की दौड़ के पीछे खुद को समेटते हुए।। कर तो रहीं हूं एक कोशिश, हर रोज़ खुद में कुछ टटोलने की इस नई दुनिया की रिवायतों को अपनाने की  पर शायद कही गुम हो रही हूं, जैसे अपने ही अस्तित्व को कही खो रहीं हूं।  डर लगता है, कहीं दफन न हो जाये मासूमियत मेरी  इन

एक सवाल?

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मुझे लिखना पसंद है या यू कहूं मुझे लिखने से मोहब्बत है। मैं हर दफा कुछ नया लिखने की कोशिश करती हूं, कुछ ऐसा जो मेरी ही लेखनी को चुनौती दे सके और मेरे अन्दर छुपे एक कलाकार को जन्म दे सके। पेशे से मैं एक राइटर हूं, पर सच कहूं तो मैं आज भी  खुदको एक राइटर कहने से कतराती हूं। और शायद तब तक कतराती रहूगीं जब तक मेरे लिखे हुए अल्फाज़  लोगो के दिल को छूते हुए उनकी जुबां पर आकर ,ये कहते हुए न ठहर जाए कि वाह क्या खूब लिखा है ! मुझे अक्सर इस सवाल से होकर गुजरना पड़ता है कि मैं क्यूं लिखती हूं? मेरी कहानियां, मेरी कविताएं और मेरी लिखी हुई शायरियां अक्सर मुझे सवालों के  घेरे में डाल देती हैं। मैं जब मोहब्बत  पर लिखती हूं तो लोग एक तंज कसते हैं कि मै इश्क कर बैठी हूं, और एक आशिकाना किस्म की शायरा बन गयी हूं।  जबकि मैं अपने किसी लगाव को नहीं, अपनी  नजरों के सामने हो रहे प्यार के अभाव को लिखती हूं। अगर जिंदगी पर लिखूं तो जमाने की नजरे इस कदर देखती हैं कि जाने जिंदगी मुझ पर कितने सितम कर बैठी है, और मैं दुनिया से बेतहाश होकर बेबस हो गयी हूं।  कभी जो दर्द लिख दूं तो जनाब, पूछिए ही मत जान

वो स्त्री है!

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एक महिला होने के नाते वह कभी यह नहीं कह सकती कि वह कमजोर पड़ रही है या उसके आत्मविश्वास में कमी आ रही है, क्योकि  वह जानती है कि ऐसा करने से उससे जुड़े उन सभी  लोगों की उम्मीदें भी डगमगाने  लगेंगी जिनका विश्वास उसकी दृढ़ृता पर टिका होता है, उसका व्यवहार, उसकी आदतें, उसके जीने का अंदाज़ ही कुछ लोगों को ज़िदगी में आगे बढ़ने के लिए हर कदम पर प्रेरित करता है, क्या इस बात का पता उसे है? वह लड़ रही होती है,अपने अंदर चल रही उन तमाम उलझनों से जिसका जिक्र भी  शायद वह किसी से करना पसंद नहीं करती। वह सहम जाती है दुनिया के उन कटाक्षों से जो अंत में सिर्फ यही कहेगें... गलती तो तुम्हारी भी  रही होगी। जाने कितने ही नकारात्मक भावनाओं का समन्दर उसके भीतर क्यों न उमड़ रहा हो लेकिन हर चोट की सिरहन को छुपाना वह बखूबी जानती है। इन सब के बावजूद भी वह कभी  खुद को बिखरने नहीं देती। थोड़ा सा साज- श्रृंगार  करके अपनी खूबसूरत मुस्कान के पीछे की पीड़ा को कभी  जाहिर  नहीं होने देती। अनेक रिश्तों के दायरें में उलझी एक स्त्री अपनी जिंदगी के हर किरदार को शिद्दत से निभाती है। अपनो के लिए सोचते-सोचते ही वह कितनी अंधेरी रातें